एक गज़ल उसपे लिखूँ दिलका तकाज़ा है बहुत,
इन दिनो खुद से बिछड जाने का धडका है बहुत.................
रात हो दिन हो गफलत हो के बेदारी हो,
उसको देखा तो नही है उसे सोचा है बहुत...........
तशनगी के भी मुकामत है क्या क्या नही,
कभी दरियाँ नही काफी कभी क़तरा है बहुत...........
मेरे हाथो की लकीरो के इज़ाफे है गवाह,
मैने पत्थर की तरह खुदको तराशा है बहुत................