Tuesday, January 22, 2008

******कुल्फत-ए-इन्सान*******

बिमारी-ए-हस्ती की दवा क्यो नही आती,
जी भर गया दुनियाँ से क़ज़ा क्यो नही आती,

हर कुल्फत-ए-इन्सान को जो जड ही से मिटा दे,
आलम मे कोई ऐसी वबा क्यो नही आती,

गुलशन की निघाबानी का झगडा ही निपट जाये,
होंठो पे तबाही की दुआ क्यो नही आती,

हर एक पे कर लेते है बेफिक्र भरोसा,
हम जैसो को जीने की अदा क्यो नही आती,

इक रोज़ के फक़ा से खुला राज़ की आखिर,
किस्मत की तिजातत मे हाया क्यो नही आती,

कहते है की हर चीज़ मे तू जलवा नुमा है,
फिर मुझ को नज़र तेरी ज़िया क्यो नही आती,

खून रेज़ी-ओ-बर्बादी पे काम है उनके,
सीनो से नेलामत की सदा क्यो नही आती,

मज़लुम पे टूटे है मुसीबत पे मुसीबत,
सर-ए-ज़ालिम पे बाला क्यो नही आती.......................................

1 comment:

Raj said...

सुश्री प्रिया जी
हम तो मुरीद हैं आपकी रचनाओं के

"बिमारी-ए-हस्ती की दवा क्यो नही आती,
जी भर गया दुनियाँ से क़ज़ा क्यो नही आती,"

सो बहुत् खूब और "इरशाद" ही कहते हैं हम। आपकी खिदमत में पेश है कुछ इस तरह। अर्ज़ किया है:-
"दिल में रह गया इक मलाल"

कातिल पड़ा है कब्र पर मेरी निढाल सा
गोया कि दिल में रह गया इक मलाल सा

गो मुझसे तो जुदा रहा वो उम्र भर मगर
साये की तरह साथ रहा इक ख्याल सा

आँखों में आँखे डाल कर मैं देता क्या जवाब
वो सामने खड़ा था मेरे इक सवाल सा

चांदनी तारे समंदर फस्ल-ए-गुल कैफ-ए-बहार
फैला हुआ है किसका यह नूर-ओ-जमाल सा
"प्रियराज"