Monday, January 28, 2013

 तू किसी तरह से हयात के नए सिलसिले तो बढ़ा ज़रा
किसी रंग में किसी रूप में मुझे ज़िन्दगी से मिला ज़रा ...

 मेरी तिश्नगी तेरी मुन्तज़िर मेरी हसरतों को नवाज़ दे
तू बिखेर बातों की चांदनी यूँ ही दफ़ अतन कभी आ ज़रा ...
मैं शिकस्ता ख़्वाबों की कतरनें नहीं चुन सका है थकन बहुत
मैं बुझा बुझा सा चिराग हूँ मुझे फिर से आके जला ज़रा ...

 मेरे गिर्दो पेश के वाकए मुझे तोड़कर ही चले गए
मेरी नींद जाने किधर गई उसे दूर से कभी ला ज़रा..

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